Sunday, October 09, 2011

जो सचमुच में बड़े हैं








श्री कमलेश भट्ट कमल यों तो पीसीएस अधिकारी हैं। वाणिज्य कर में ज्वाइंट कमिश्नर हैं। पर वह एक स्थापित साहित्यकार हैं। मूलत: गज़लकार हैं। यह वह खुद भी मानते हैं लेकिन उन्होंने कहानी, साक्षात्कार, यात्रा वृतांत और बाल साहित्य भी लिखा है। हाइकु का तो उन्होंने आन्दोलन ही छेड़ रखा है। कमलेश जी की साहित्यिक यात्रा 1975 से शुरू हुई पर गज़ल यात्रा 1990 से। लेकिन जिस तरह उनका साहित्य की ओर रुझान और साहित्यकारों से सम्पर्क रहा है, उससे लगता है कि वह ज़मीं पर साहित्यकार बनने के लिए ही आये। अधिकारी तो बन गये या बनना पड़ा। साहित्यकारों को भी अब कुछ काम अनिवार्य रूप सें करने पड़ते हैं। जैसे शादी, बच्चों की परवरिश, फिर उनकी शादी..। गालिब, मीर, जोश, फैज के जमाने में होते तो बस साहित्यकार होते। उनकी पत्नी भी उस दौर में होतीं तो साहित्यिक रचना को फालतू मानतीं। अब पत्रिकाओं में पति की रचनाएं, इंटरव्यू छपे, रेडियो टीवी पर नाम आया, कवि सम्मेलनों में दाद मिली, पुरस्कार-सम्मान मिले तो पत्नी को लगा कि वाकई यह कोई बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। उन्हें मिसेज भट्ट होने पर फख्र महसूस हुआ। पति की इज्जत और शोहरत उनको अपनी इज्जत और शोहरत लगी। असली भारतीय नारी को इससे ज्यादा और चाहिए भी क्या। भट्ट जी का जन्म 13 फरवरी, 1959 को सुल्तानपुर के जफरपुर गांव में हुआ। गांव की तहसील कादीपुर के पांच कि०मी० के दायरे में कई महत्वपूर्ण साहित्यकार रहते थे। जैसे पूर्व में कहानीकार संजीव, पश्चिम में मानबहादुर सिंह, उत्तर में कवि त्रिलोचन शास्त्री, दक्षिण में रामनरेश त्रिपाठी। इनसे सम्पर्क न भी रहे पर जरासीम तो हवा में उड़ते ही हैं। वो साहित्य के हों तो और ‘खतरनाक’ होते हैं। 12वीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए भट्ट जी लखनऊ आ गये। साहित्य के कीटाणुओं से रोग पनपने लगा था। यहां उसे गंभीर होने का पूरा अवसर मिला। रवीन्द्रालय और हिन्दी संस्थान में आये दिन कार्यक्रम होते थे। कई अखबार भी लखनऊ से छपते थे और साहित्य भी खूब छापते थे। क्योंकि उनके सम्पादक खुद साहित्यकार होते थे। कई साहित्यकार उनमें विभिन्न पदों पर नौकरी भी करते थे। लखनऊ में भट्ट जी को अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों का स्नेह प्राप्त हुआ। इसमें अमृतलाल नागर, शिवानी, शिवसिंह सरोज, रमाकांत श्रीवास्तव, विनोद पांडेय, चंद्रोदय दीक्षित के नाम उल्लेखनीय हैं। 1979 में लखनऊ विविद्यालय से गणित में एमएससी करने के बाद पीसीएस किया। पहली पोस्टिंग रायबरेली में हुई। वहां शम्भु दयाल सिंह सुधाकर, अम्बर बहराइची, मधुकर खरे, शम्भुनाथ जैसे साहित्यकारों का साथ रहा। इसके बाद उनका स्थानांतरण आगरा, मथुरा, अलीगढ़, सहारनपुर, गाजियाबाद हुआ। कई शहरों में वह दो बार रहे। इस बीच उनको सोम ठाकुर, रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी, अशोक रावत, शशि तिवारी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, डा० जगदीश व्योम, डा० दिनेश पाठक शशि, उपेन्द्र, शहरयार, नीरज, प्रो0 कुंवरपाल, डा. नमिता सिंह, डा. वेद प्रकाश अमिताभ, प्रेम कुमार, सुरेन्द्र सिंघल, शलभ, आरपी शुक्ला आदि का साथ मिला। गाजियाबाद में उनकी पोस्टिंग दो बार हुई। गाजियाबाद को हम दिल्ली तक मानते हैं और दिल्ली को गाजियाबाद तक। इस बीच वह चित्रा मुद्गल, सेरा यात्री, प्रभाकर श्रोत्रीय, हरिकृष्ण देवसरे, कमल किशोर गोयनका, लक्ष्मी शंकर बाजपेयी, देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, जैसे अनेक साहित्कारों के सान्निध्य में रहे। साहित्यकारों से मेल-मिलाप और फिराक, उपेन्द्रनाथ अश्क व महादेवी जैसे अनेक साहित्यकारों का इंटरव्यू.. यानि साहित्य की इतनी हैवी डोज के बाद वह लेखन के एडिक्ट हो गये और अच्छा लिखना उनकी मजबूरी बन गया। अब से पहले 1990 में भी वह कानपुर में रहे। तब यहां गज़ल के उस्ताद शायर पं. कृष्णानंद चौबे से उन्होंने गज़ल के कुछ गुर सीखे। और बस गज़ल ही कहने लगे। इस बारे में उनका कहना है- ‘ एक बार जब गज़लों से जुड़ा और इस विधा की ताकत को समझ गया तो कविता की दूसरी विधाएं फीकी-सी लगने लगीं और कहानियों का लिखना प्राय: बंद ही हो गया। गज़ल के सात जुड़ाव ने मुझे एक ऐसे क्षितिज पर पहुंचा दिया था जहां अभिव्यक्ति की असीम संभावनाएं थीं। इन संभावनाओं को मैं कथ्य, शिल्प और भाषा जैसे कई स्तरों पर देख पाता हूं। मैं मानता रहा हूं कि हिंदी गज़ल में नई कविता का कथ्य, नवगीत की नव्यता तथा गीत की छांदसिकता- तीनों एक साथ मौजूद हैं। गज़ल का यथार्थवादी और समाजिक रुझान इस विधा को देश के आम आदमी की ज़बान बनने की सामथ्र्य देता है।’ उनके कुछ शेर मुलाहिजा हों-

वो खुद ही जान जाते हैं बुलन्दी आसमानों की। परिन्दों को नहीं तालीम दी जाती उड़ानों की।।

विरोध अपना जताने का तरीका पेड़ का भी है,
जहां से शाख काटी थी वहीं सेठ्ठ कोपलें निकलीं।

उधर सब सन्त कहते हैं कि धन-दौलत तो मिट्टी है, इधर हमने लगा रक्खा है अपना धन ज़मीनों में।

बिछे हों लाख कांटें, पर चुभन बिल्कुल नहीं आती। उम्मीदों का सफ़र हो तो थकन बिल्कुल नहीं आती।।

नसीबों पर नहीं चलते नज़ीरों पर नहीं चलते।
जो सचमुच में बड़े हैं वो लकीरों पर नहीं चलते।।

नहीं अब तक थके जो तुम तो कैसे हम ही थक जाएं,
तुम्हारे जु़ल्म भी जारी हमारी जंग भी जारी।

अलग यह बात है वह आज या फिर कल निकलता है।
बहुत मुश्किल सवालों का भी लेकिन हल निकलता है।।

निकलती है बहुत मिट्टी, निकलती है बहुत बालू, ज़मीं से तब कहीं जा करके मीठा जल निकलता है।

कमलेश जी के दो कहानी संग्रह ‘शंख सीपी रेत पानी’, ‘मैं नदी की सोचता हूं’ प्रकाशित हुए हैं। पहले गज़ल संग्रह पर उप्र हिन्दी साहित्य संस्थान ने निराला पुरस्कार प्रदान किया है। संस्थान ने उनके कहानी संग्रह ‘नखलिस्तान’ को सर्जना पुरस्कार व बाल कहानी संग्रह ‘मंगल टीका’ को सूर नामित पुरस्कार से नवाजा है। इसके अलावा उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें किताब घर प्रकाशन समेत अन्य संस्थाओं ने सम्मानित किया है। उपर्युक्त पुस्तकों के अलावा भट्ट जी के तीन यात्रा वृतांत, दो साक्षात्कार संग्रह, दो कहानी, एक बाल कविता संग्रह व एक बाल उपन्यास भी प्रकाशित हो चुका है। उनका एक हाइकू कविताओं का संग्रह भी छप चुका है। एक लघु कथा संग्रह व चार हाइकू संग्रह उन्होंने सम्पादित किये हैं। वह दो साहित्यिक संस्थाओं के सक्रिय पदाधिकारी भी हैं। 1980 में कमलेश जी का विवाह हुआ। ससुर डर रहे थे कि साहित्यकार का क्या भरोसा। पर वह भरोसेमंद साबित हुए। उनके लिए भी, साहित्य के लिए भी। आज वह 14 पुस्तकों, दो बेटियों और एक बेटे के पिता हैं। बेटे बेटी का साहित्य की ओर रुझान नहीं है पर बड़ी बेटी को संगीत का शौक है। उसने पिताजी की कई गज़लों की धुन बनायी है। उन्हें मंच पर गाया है। पुस्तकों ने भट्ट जी को साहित्यिक मंच पर जमाया है।

समन्दर में उतर जाते हैं खुद ही तैरने वाले।
किनारे पर भी डरते हैं तमाशा देखने वाले।।

चले थे गांव से लेकर कई चाहत कई सपने,
कई फिक्रें लिए लौटे शहर से लौटने वाले।

बुराई सोचना है काम, काले दिल के लोगों का,
भलाई सोचते ही हैं भलाई सोचने वाले।

यकीनन झूठ की बस्ती यहां आबाद है लेकिन,
बहुत से लोग जिन्दा है अभी सच बोलने वाले।

दूध को बस दूध ही पानी को पानी लिख सके।
सिर्फ कुछ ही वक्त की असली कहानी लिख सके।।

उम्र लिख देती है चेहरों पर बुढ़ापा एक दिन,
कोई-कोई ही बुढ़ापे में जवानी लिख सके।

उसको ही हक है कि सुबहों से करे कोई सवाल,
जो किसी के नाम खुद शामें सुहानी लिख सके।

मौत तो कोई भी लिख देगा किसी के भाग्य में,
बात तो तब है कि कोई जिंदगानी लिख सके।

1 comment:

SANDEEP PANWAR said...

आपके यहाँ आकर अच्छा लगा।