प्रख्यात साहित्यकार कमलेश भट्ट कमल प्रणीत बाल उपन्यास ‘जंगल का लोकतंत्र’ का अवगाहन किया। उपन्यासकार ने बाल व किशोर हेतु इस उपन्यास को चौसठ पृष्ठों के कलेवर में गठित किया है। इसका कथानक इन्सानी महत्वाकांक्षाओं के आक्रमण से बचे हुए एक सुदूरवर्ती प्रान्त के जंगल में पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहे शेर के राज से प्रारंभ होता है जहाँ जंगल में इन्सानी लोकतंत्र की भांति प्रक्रिया अपनायी जाती है और शाकाहारी जानवरों के बहुसंख्यक होने से और उनमें हिरन प्रजाति को संख्या के आधार पर अधिक होने से एक बूढ़े हिरन के मतानुसार उसके बेटे को राजा चुना जाता है। शाकाहारी हिरन राजा जंगल में हिंसा को अवैध घोषित करता है किन्तु दाँव-पेंच अपनाकर एक मांसाहारी भेड़िया घुसपैठ बनाकर सुरक्षामंत्री पद हथिया लेता है। धीरे-धीरे हिंसा के प्रति निषेधाज्ञा का उल्लंघन होने लगता है। राजा के पास शिकायत आने पर जांच कमेटी गठित की जाती है जिसमें मांसाहारी मंत्री द्वारा उलट-फेर करवाकर निर्णय प्रभावित कराया जाता है। हिंसा पर हिंसा चोरी छिपे होने लगती है। जांच पर जांच कमेटियाँ बनती रहती हैं और सही निर्णय में बाधा पड़ती जाती है। भेड़िए की धूर्तता बढ़ती जाती है। हिरन राजा के आदेश से अल्पसंख्या वाले जानवर एक-एक करके भगाये जाते हैं किन्तु भेड़िया की बारी आने पर वह हिरन राजा व उसके परिवार का शिकार कर स्वयं राजा बन जाता है। अन्ततोगत्वा मृतक शेर राजा के एक वफादार कुत्ते के सहयोग से उसके बच्चे को वापस लाकर जानवरों में नव संगठन द्वारा धूर्त भेड़िये को गद्दी से हटाया जाता है और युवराज शेर को राजा नियुक्त किया जाता है। फलतः जंगल में एक नये लोकतंत्र की दस्तक होती है जहाँ इन्सानों के लोकतंत्र की सजा भुगत रहे जंगल को कुछ राहत मिलती है।
उपन्यास के थीम-प्लाट पर साहित्यिक दृष्टि डालने से विदित होता है कि इसमें कार्य-कारण श्रृंखला पर आधारित काल्पनिक प्राकथन है जिसमें वन्य जीवन की कथा-व्यथा एक नये प्रसंग से जोड़कर व्यक्त की गई है। जंगल का राजा तो शेर ही होता है। वहाँ अन्य प्रजाति वह भी निर्बल शाकाहारी का राजा बन जाना अप्राकृतिक लगता है। मांसाहारी पशु को शाकाहारी बनाया जाना भी अस्वाभाविक है। मानवी प्रवेश को जंगली प्रवेश पर थोपना भी स्वाभाविक नहीं है क्योंकि दोनों का व्यवहार-जगत बिल्कुल भिन्न है। चूँकि कथित उपन्यास बाल जगत के लिए है इसलिए इसमें बालमन रमाने और रोचक बनाने के लिए वस्तुविन्यास में प्रचुर सामग्री है। वर्णित घटनाओं में कौतूहल के साथ-साथ सुसंगठित चित्रात्मकता विद्यमान है। वन्य पशु अपने स्वभावानुकूल चरित्र की भूमिका निभाते हैं। वस्तु के उपसंहार में भी लेखक का कौशल फलागम को सुखांत बनाने में उभर कर सामने आया है। कथानक के संवादों में सजीवता है। उनमें रोचकता, रंजकता और स्वाभाविकता का आधान है। लगभग सभी संवाद कथानक के स्वाभाविक विकास में सहायक सिद्ध हुए हैं। वे पात्रों के अन्तः-बाह्य चरित्रों का सम्यक उद्घाटन भी करते हैं। कथानक में प्रसंगानुसार मानवीय लोकतंत्र में व्याप्त मानव कुकृतियों पर अच्छा-खासा कटाक्ष भी है। उसमें जल-प्रदूषण, पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, डकैतों, लुटेरों, माफियायों के कुकृत्य आदि पर भी प्रहार है। जांच कमेटी बनाकर न्याय में विलम्ब व हेर-फेर की बात कह कर ऐसी प्रणाली के प्रति आक्रोश के साथ व्यवस्था में व्याप्त अन्य दुर्गुणों की ओर संकेत और फिर नये लोकतंत्र की दस्तक का युगबोध कथानक को सुखांत की ओर अग्रसर करता है। उपन्यास की भाषा सरल, सरस, खड़़ी बोली हिन्दी है। यत्र-तत्र संवादों के माध्यम से पात्रों के अनुकूल चटपटी व रोचक शब्दावली ने कथ्य को लालित्यवर्धक बना दिया है। कथानक की भाषा पात्रानुकूल और विषयानुकूल है। कथ्य में समय-खण्ड का ध्यान रखा गया है। समस्याओं एवं प्रश्नों पर टिका कथ्य समाधान का पुट लिए है। इस रोचक प्रणयन के लिए उपन्यासकार कमलेश भट्ट ‘कमल’ वधायी के पात्र हैं।
समीक्षक-
-रामदेव लाल ‘विभोर’
महामंत्री
काव्य कला संगम, लखनऊ
565 क/141, गिरजा-सदन
अमरूदहीबाग, आलमबाग
लखनऊ-226005
मोबाइल - 9335751188
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